Tuesday 10 October 2017

हाँ तुम रहो...









                               




बहती हवाओं के मध्य
खड़ी
अस्थिर
अनवरत प्रतीक्षा है
आकाश
ठहरा बादल
एक नाव

मेंहदी से सुर्ख हाथ
( वो हाथ मेरे )
दूब घास जो पीली होकर नीली काली हो गयी
कोई हृदय भी नहीं बचा
किसी हृदय के लिए
ममत्व के लिए
मोह
मौन सत्य के लिए

मगर तुम रहो
ब्रह्माण्ड के सर्वस्व ज्ञाता
सूरज
 चंद्र
 तारे बनकर

हाँ तुम रहो
किसी डाल पर बसंत के जैसे
खिलो इसी ऋतु में
इस युग का ऋण चुकाने के लिए
करो सारे जतन
सबसे प्रेम करने के लिए
बनो परमात्मा
संत कबीर

या फिर सफ़ेद नन्हा फूल
जो उगेगा बरसात की गीली मिटटी में
उस अमर सौन्दर्य की कल्पना करते हुए
तुम श्वास भरो
तुम रहो

प्रतीक्षा की सारी घड़ियां बीनते हुए
हाँ तुम रहो...








Saturday 19 August 2017

दो लिख रही हूं







तुम जानते हो 
दोधारी तलवार पर चलना क्या होता है

शायद नहीं जानते 
मेरे पास बेबुनियादी बातों का ढेर नहीं है 
बल्कि हथकरघे के पंजों में फसे कितने ही सटीक धागे हैं 
जो आगे पीछे ऊपर नीचे होने पर नहीं उलझते 
जैसे पहाड़ की ऊँची चोटी की तीखी नोकदार ढलान पर घास चरती भेड़ बकरियां नहीं गिरती 

रिवाज के मुताबिक जिस्म और रूह का अलग अलग हो जाना  
रात ढलते ही समझौता करना 
तकिये का गीला होना 
एक उम्मीद का धीरे से खिसकना 
रात के अंतिम पहर में हौले से उठना 

अधूरी कंघी कर के वे नुमाइश के लिए नहीं निकलती 
जितना हो सकता है 
जंगल में जाकर लकड़ियां बटोरती हैं आनन फानन में 
इस पशोपेश में भी 
कोई जिंदगी का सिरा ही हाथ लग जाये 
अपनी मजबूती जांचने के लिए कमजोर टहनियों पर कुल्हाड़ी भी चला लेती हैं
दराती से घास काटते वक्त कितने जख्म भर जाते होंगे और रिस जाते होंगे 
धान की बुआई में झुकती डालियां किसी केल्शियम की मोहताज नहीं होती
बीसियों बड़ी बातें होती हैं 

दो लिख रही हूं  
वजूद से हट कर औरत होना 
वादे के मुताबिक जिन्दा होना 









मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...