Tuesday 27 September 2016

राम की मैं सीता थी






                               

तुम मुझे देवी का दर्जा ना दो  
तुम मेरी महिमा का बखान ना करो

ना ही मेरी ममता करुणा वात्सल्य जैसी भावनाओं का ढोंग रचाओ 
देह का सौंदर्य और प्रेम का गुणगान किसी कविता में ना करो 
मेरे त्याग और बलिदान को जग से ना कहो
मुझे गृहलक्ष्मी और अन्नपूर्णा जैसे देवीय नाम ना दो 

मैं जानती हूँ सब 
ये सब तुम क्यों कहते हो 
कितना छल करोगे मुझसे 
मैं निष्प्राण नहीं काठ की मूर्ति जैसी
मैं सांस लेती हूं 
दर्द से विहल होती हूं 

देवी का दर्जा देकर और क्या क्या करवाओगे 
देवी होने के वाबजूद मैं अपने अस्तित्व की तलाश में हूं
आखिर क्यों ?
मैं मूढ़मति इतना भी ना जान सकी  

राम की मैं सीता थी 
थी महाभारत में मैं पांच पतियों वाली 
मानव क्या 
देवता क्या   
स्वयं ईश्वर के हाथों जो छली गयी 
वो थी मैं

एक आग्रह 
एक विनती है तुमसे मेरी 
तुम मुझे सिर्फ एक इंसान ही रहने दो 



Thursday 22 September 2016

हमें नहीं आता हाथ पकड़ना






                            




हमें नहीं आता हाथ पकड़ना 
साथ बैठना 
रास्ता दिखाना 
किसी के आंसू पौंछना

जब हो रही हो कठोर दर कठोर जिंदगी 
पार कर रहे पहाड़ जैसे अनुभव 
पराधीनता से लैस बर्चस्व 
दरारों के जैसे प्रयास 

सूख रहें हो जलप्रपात 
अपनी ही मिटटी अपने हाथों से छूटती जा रही हो 
और छूट रहे हों शरीर से प्राण 

तब अटल समाधान हो सकता था 
नवनिर्मित किया जा सकता था विश्वास 
दे सकते थे अपनापन 
दूर हो सकता था अंधकार  
लौट सकती थी सुबह 

और उजली हो सकती थी चांदनी 

मगर किताबी बातों को परे रख 
क्षण भर को आये स्वार्थ को दूर कर 
हम नहीं जुटा सके हौसला 
ना कर सके सामने से मदद 
न जोड़ सके उसकी हड्डियां 
न ही फूंक सके उसमें प्राण 

हमें आता है 
पीठ पीछे ढोंग करना 
मगरमच्छ के आंसू बहाना
दया दिखाना 
ग्लानि भाव लिए 
अपराध बोध से ग्रस्त होना  

हमें नहीं आता 
कठिनतम समय में किसी से प्रेम करना 


मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...