Saturday 18 July 2015

कुल्लू श्रृंखला..भाग-1














                                                                     
एक लम्बे अरसे बाद फिर ब्लॉग पर सक्रिय हूं और आप सभी के समक्ष उपस्थित हूं काव्य रचना कुल्लू श्रृंखला के साथ ..आदरणीय कवि विजेंद्र जी के कथन से मैं सहमत थी उनके कहे शब्द मेरे लिए गूँज थे, ये मेरे लिए प्रोत्साहन का विषय था ..कुल्लू में हो आजकल तुम मंजूषा, प्रकृति के इतने नजदीक रह कर वहां के लोगों संस्कृति विरासत के बारे में लिखो..ये गौरव भी है और ये भावनात्मक पहलु भी है कि देवभूमि मेरी जन्मभूमि रही है |      



स्वर्णिम मुखों की स्वर्णिम परम्परा 
लोक गाथाओं में बैभव का गान 
देवताओं के उत्सवों में पिशाचों की टोली और आचारहीनता की धूम
   
दुर्गा के प्रहारों से बचते दुर्ग की भयावह हंसी   
जलतत्व नष्ट होने पर कमंडल में रखा जल अभी भी पवित्र है   
देवीयलोक की अविश्वसनीय सी बहुधा बातें मेरे घर के पास ही हो रही हैं 
रहस्य्मयी कथा का सारा वृत्तांत सब के सर माथे मढ़ा जा रहा है 

पुरुष गुपचुप बैठे बीड़ी सुलगाते हुए हर बात में सर हिला कर हामी भरते हुए 
बीच बीच में स्त्रियों को भी बीड़ी पकड़ा देते हैं 
एक दीर्घा में खड़े इन पहाड़ों के ठेठ रिवाजों के मुताबिक स्त्रियां अमानुष सी लगती हैं 
चिलम हुक्का बीड़ी पीने की शौक़ीन 
घोर परिश्रम से घिरी ये लौंग गोखरू चांदी के चन्द्रहार बड़े चाव से पहनती  हैं 
देवीय प्रकोप या माता निकलने पर झाड़ फूंक भी करवाती हैं 

रख रखाव असंभव है 
रजस्वला स्त्रियां कहीं पावं नहीं धरती  
चूल्हा चौका आँगन मंदिर द्वार सब निषेध हो जाता है 
पुरुष के वर्चस्व झूठे अभिमान उद्दंडता के स्वरूप 
गाय भेंसों के साथ वाले कमरे में ये भी रख दी जाती हैं 
उन पांच दिनों वाली अछूत गाय 

लोक लाज की आशंका से परे पुरुष निर्विघ्न दूसरी स्त्री के साथ सोने को कामातुर रहते हैं   
संकरी नदी के किनारे जन्म लेती कहानियां 
पानी का शोर और घराटों में चलती चक्की के बीच पिसती कणक का दर्द कौन जनता है 
जाने भी क्यों ?

प्रकृति दिलफेंक है यहां 
विद्रोह की परिभाषा नयी और रुदन का सिस्टम निठल्ला है 
आकाश बहुत सारे हैं 
सब उड़ जाते हैं और 
कंक पंख पसारे विराजती है शमशानों में 

5 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर और रोचक शब्द चित्र..

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    1. हार्दिक आभार आपका

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  2. बढ़िया पंक्तियाँ

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