आँखें देखती हैं जिंदगी की
आवाजाही धीरे धीरे
बचते बचाते मैं भी चलती हूँ
नदी के तीरे तीरे
फिर किसी बात की तुनक मिजाजी
फिर किसी बात पर ताना
सोचने पर विवश करने लगा
फिर क्यों हमको ये जमाना
दल दल इतना है सिकुड़ती है
जमीन एहसासों की
रोज चरमरा जाती है खिड़कियां
बनते विश्वासों की
हवा के झोंकें की सुगबुगाहट
खामोशियों को चीर देती है
बदलते रिश्तों की परिभाषाएं
अनचाहे आँखों में नीर देती हैं
सींचती हूँ बंजर जमीन पर
फूल पत्तों की धरोहर
सहनशीलता की बेदी पर लगी
कमजोरियों की नाजुक मोहर
एक दहलीज मेरी बस बाकी
घर लगता है बेगाना
अल्हड़ सी बन कर रह गयी
सारा अंगना हुआ सयाना
अपनों की चाह समझने में
कतार लग गयी प्रयासों की
अंदाजन नाप तोल लेती कभी
लगती झड़ी कयासों की
मन के कोने की सुनहरी धूप में
अब नयी कोंपले खिलती हैं
इसी बसंत के आने पर जीने की
वजह मुझे मिलती है
न ही अस्तित्व की नीवं न ही
ऐसी कोई तलाश चाहिए
परों को खोल उड़ सकूं बस एक
अपना सा आकाश चाहिए