Tuesday 27 August 2013

ये धुंधले आशियाने






ये धुंधले आशियाने कुछ कहते हैं 
हम आज भी बीते हुए कल में रहते हैं 

कुछ बातें अधूरी सी 
वो शामें सिन्दूरी सी 
यादों के शामियाने कुछ कहते हैं 

जिंदगी की लौ तले
बुझ गए जो दिए 
अपनी रौशनी की कहानी कहते हैं 

रहती है कसक दिल में 
कई मर्तवा जो उठे 
वो खामोश अफ़साने कुछ कहते हैं 

ये दूरियां ही सही 
जो मजबूरियां ही रही 
वो बेबसी के मंजर कुछ कहते हैं 

ये जो तनहाइयां न हों 
या फिर परछाइयां न हों
वो गहराते साये कुछ कहते हैं  

Tuesday 13 August 2013

कम होता न ये धुंआ है





देश हमको बता रहा है या हम देश को बता रहे हैं 
जाने किस डगर किस राह हम जा रहे हैं 
बस इतनी सी बात है कम होता ये धुंआ है 
आगे खाई पीछे कुआं है 
संस्कारो की कोई बात नहीं होती 
नैतिकता मुहं ओंधे किये है सोती 
शब्द झूठे लगते हैं सच्चाई के  
बोल कडवे लगते हैं अच्छाई के 
नेकी का नामोनिशान नजर नहीं आता 
पाप का गागर भर कर छलक जाता 
भ्रष्ट लोगों को देख भ्रष्टाचार को भी है शर्म आती 
सारा देश ऐसे लिप्त है जैसे दल दल में हाथी
बलात्कार के किस्से जो हेड लाइन बन कर जो छाते 
देखकर आदमी क्या अखबार भी दंग रह जाते 
खुनी खेल को अंजाम ऐसे दिया जाता है 
जैसे रोजमर्रा का कोई काम किया जाता है 
कानून अपना अँधा है इसलिए न्याय नहीं हो पाता 
पन्द्रह सौ के मुचलके पर अपराधी छूट जाता 
मांग किसी की उजड़े या उजड़े किसी का घर 
उसको प्रशासन का खौफ है पुलिस का है डर 
पुलिस ऐसी जिसका रौब सिर्फ गरीब झौपडपट्टी 
या रिक्शावालों पर चलता है 
बड़े लोगों नेताओं आला अफसरों के एक इशारे पर 
सिंहासन उसका भी हिलता है 
दहेज़ पर बात आये तो ये किस्सा बहुत पुराना है 
सब सोचते हैं कल की आई नयी बहु को कब जलाना है 
घर भर के ताने सुन आंसुओं  की नदी बहती है 
अस्पताल में छटपटाते हुए अंतिम बिदाई लेती है 
नेता हमारे अपने हाथ नहीं आते एक एक कर घोटालों में फसते जाते 
किसी पर हत्या का केस दर्ज है 
किसी पर मुकद्दमा चल रहा बलात्कार का 
सोचने की बात ये है किसने इन्हें बोट दिया 
किसने अंग बनने दिया सरकार का 
ये आरोप इतने संगीन इतने गहरे है 
हैरान होकर देखते गूंगे बहरे हैं 
सौंधी मिटटी की खुशबू कीचड़ में बदल रही है 
समाज की सड़ी गली गन्दगी हवा में घुल रही है 
सरकार हमारी गहरी नींद में है  सोती 
अपनी कुर्सी छीन जाने का रोना रोती
लूटपाट का ,मक्कारी का जालसाजी का 
चल रहा जंगल राज है 
अंगारों पर देश है बैठा जल रहे हैं सब
फैल रही आग ही आग है 
कोई दिन ऐसा भी आये हम फक्र करें किसी बात पर 
फक्र करने की वो बात भी होगी 
वर्तमान के इन काले पन्नों में
भविष्य का कोई ऐसा पन्ना भी होगा 
जिस पर वो सुनहरी तारीख भी होगी  

              "जय हिन्द" 


मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...