लोग लिखते हैं कलम उठाते हैं
रंजोगम की एक दुनिया बनाते हैं
खुद रौशनी की शम्मा जला
उसके तले पिघलते जाते हैं
रूह को सकूं मिल जाये शायद
बस इतनी सी बात होती हैं
जितना दर्द बढ़ता जाता है
उतनी ही जवां रात होती है
कुछ शायराना तबियत है
कहीं शायराना अंदाज है
सुर भी बहके बहके हैं
बहका हुआ हर साज है
गम में डूबे वो लव्ज
कुछ अफ़साने बयाँ कर जाते हैं
आगे चलते चलते
खुद को कहीं पीछे छोड़ आते हैं
बेबाकी कि हदें तोड़ कर
कुछ ऐसे भी शौक पालते हैं
पन्नों पर लिखते लिखते
खुद को उधेड़ डालते हैं
एक खूबसूरत भाव दर्शाती बढ़िया कविता......काबिलेतारीफ बेहतरीन
ReplyDeleteजितना दर्द बढ़ता जाता है
ReplyDeleteउतनी ही जवां रात होती है
कुछ शायराना तबियत है
कहीं शायराना अंदाज है|
Kya baat!! Kya Baat !! Kya Baat.
जितना दर्द बढ़ता जाता है
ReplyDeleteउतनी ही जवां रात होती है
कुछ शायराना तबियत है
कहीं शायराना अंदाज है|
बेहद खूबसूरत!
लेखन अक्सर मन के भावों को ही तो दर्शाता है
ReplyDeleteसुन्दर
साभार !
VERY NICE BLOG .WELL WRITTEN .
ReplyDeleteआगे चलते चलते
ReplyDeleteखुद को कहीं पीछे छोड़ आते हैं
...वाह! बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...
मनन योग्य गंभीर रचना ..
ReplyDeleteमंगल कामनाएं इस कलम को !
दर्द ऐसा ही होता है ... खुद को लिखने लगो तो खुद ही उधेड़े जाते हैं ...
ReplyDeleteएहसास लिए उन्दा रचना ...
खुद रौशनी की शम्मा जला
ReplyDeleteउसके तले पिघलते जाते हैं
भावपूर्ण रचना ,
वाह.सुन्दर
ReplyDeleteनिसंदेह साधुवाद योग्य रचना....
ReplyDeleteकल 17/10/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद!