Wednesday 4 December 2013

तेरे मिलने के बाद...








जज्बातों को रौदां है बहुत अपने
तब जाकर जिंदगी तेरे पहलु तक आये हैं

है उम्मीद इन जलते चिरागों से बहुत
जो रौशनी में इतने झिलमिलाये हैं


गुलिस्तां के फूलों के रंग इतने सुर्ख न थे
जितने की तेरे मिलने के बाद हो आये हैं

होश अपने मखमली एहसासों के रख छोड़े
जो तूने अपने बेगानों के बीच कराये हैं

मुट्ठी भर रेत जो हवाओं में घुलने लगी
सरकते वक्त से कुछ पल हमने बचाये हैं

कोशिशें तमाम यूँ ही जारी है तैरने की
गहरे समंदर में जब से गोते लगाये हैं

बीती जिंदगी का फिछले सिर खोला हमने
कुछ दबे राज ऐसे भी उभर कर आये हैं

गहराता जाता है अँधेरा चारों तरफ
अश्कों में डूबे लब्ज जब से स्याह हो आये हैं

कमी कोई नहीं है देख लो फिर भी मगर
मांगने को बन के फकीर तेरे दर पर आये हैं

Sunday 10 November 2013

भरता मुझे निशब्द खालीपन






मैं नारी हूँ सोचती नारी मन
रुधिर कंठ व्याकुल हर क्षण 
मंद पवन के झोंके सी बहती 
पर रहती तेज हृदय की जलन 
पहली किरण प्रभात का गान 
सूखती मिटटी धरा अभिमान 
अश्रु जल से भीगा कण कण 
यज्ञ की बनी पूर्ण आहुति सी
वेद ऋचाओं में अलंकृत सी 
निर्मल आलौकिक गंगा पावन
मातृत्व की करुण कोमलता
सतीत्व की सावित्री पतिव्रता 
भरा आँचल पर खाली दामन
फूल पाती कर सोलह श्रृंगार 
रूप नव यौवन से भरे बाजार 
लज्जित हुआ समक्ष देख दर्पण 
चुकता करती सबका आभार 
पूरा एहसास पर अधूरा प्यार 
कर्ज कर्ज में डूब गया अपनापन
खाली दीवारें रह ढूंढती जवाब 
जालों में उलझे लिपटे सवाल 
पुकारता मेरा निरीह सूनापन 
मन छोटा सा ओस बूँद जितना 
समाई है सृष्टि ओज है इतना
अदभुत शक्तियों का मैं संगम 
गढ़ती खुद ही अपनी परिभाषा 
तरुवर के पत्तों सी अभिलाषा 
भरता मुझे निशब्द खालीपन 

Saturday 26 October 2013

लक्ष्मण रेखा







र्यादा के वृत्त में खड़ा कर औरत
सदियों से जिंदगी को जबरन ढोती

आज की सीता है तुमसे पूछ रही 
क्यों पुरुषों की लक्ष्मण रेखा नहीं होती

फूल दूसरों के बिछौने में बिछा खुद 
काँटों की सेज पर चारों पहर सोती

अयाशियों के दल दल से बाहर निकाल 
अश्रुओं से पति का मैला दामन धोती

हर अंग जकड़ा हुआ है बेड़ियों में
समझती जैसे उन्हें बसरा का मोती

हर बार जीतते जीतते जंग हार जाती 
दर्द के समंदर में अपने अरमान डुबोती

ढलती साँझ में उम्मीद की लौ जला कर
उसकी रौशनी में सब आशाएं खोती 

बरसों की दहलीज पर जमी मिटटी को
गमले में रख अपने सपनों के बीज बोती

अपने कर्तव्यों का दायित्व निभाते हुए कब 
एक आंख हस देती एक आंख उसकी रोती


Thursday 10 October 2013

एक फूल








ध्वस्त होती शाखाओं के मध्य 
एक फूल था खिला 
स्वर्णिम रगों की आभा नाचती 
परियों सी 
हरित मन की बेल पर बरसी 
बूँदें बरखा सी
सुदूर पर्वत से आती शोख 
चंचल हवा 
विचलित तन मन रोम रोम
सिहर उठा 
गोद में धूल से लिपटे हुए 
धरा 
व्यक्त करती उसकी असहनीय 
व्यथा  
कुम्हलाया उदासियों में था
पड़ा  
गुरूर था सुन्दरता देह का
इतना भरा 
चहकता इतराता था जो
डाली डाली 
वो क्षण गया छिन गयी वो
हसी ठिठोली 
गुन गुन करते भँवरे अब 
भी गाते हैं 
राग मलहार जीवन का 
सुनाते हैं   
निर्मल मन की व्याख्या क्षणिक 
देह से ऊपर है 
अंत समय सब राख धुएं का 
गुब्बार भर है 












Thursday 19 September 2013

आत्मा मैं





युगों ने बदला ब्रह्माण्ड का स्वरूप
सदियों ने तय किया इंसान का रूप 
परन्तु मैं वहीं हूँ जहां कालांतर में थी 
समय का हर क्षण ब्रह्माण्ड की हर वस्तु 
जानना चाहती है आखिर कौन हूँ मैं 
अपना रहस्य खोलने वाली 
एक आत्मा क्यों मौन हूँ मैं 
अपने अस्तित्व के बारे में 
क्या मुझे कुछ कहना है 
या सृष्टि की रचना के सन्दर्भ 
में यूँ ही चुप रहना है 
विशाल अन्तरिक्ष की गहनता 
को नाप है मैंने 
लाखों मीलों का सफ़र 
पलक झपकते किया है मैंने 
समय का पहिया हर क्षण 
एक नया दृश्य सम्मुख प्रस्तुत 
करता रहा 
इस ब्रह्म लोक में काल भी 
मुझसे प्रश्न करता रहा 
एक आवेग एक ओज एक तेज का 
समावेश है मुझमे 
जो हजारों प्रकाश पुंजों के तेज को
ध्वस्त करता रहा 
कितनी ही आकाश गंगाओं
से गुजरी हूँ मैं 
पृथ्वी पर जब मेरा आगमन हुआ 
तनिक पहले उसके आवरण ने मुझे छुआ
सहसा आभास हुआ परमात्मा का अंश
जो मुझमे था कहीं खो गया 
अनायास ही भटकती जा रही थी 
छली जा रही थी हर पल हर क्षण 
हर घडी मुझे जता रही थी 
निष्क्रिय हो किस दिशा में खिची  
चली जा रही थी 
वायु का वेग पीड़ादायक महसूस होता था 
सहसा बज्रपात हुआ 
जैसे मेरे अहम पर कुठाराघात हुआ 
ठोस धरातल की चट्टानों के बीच 
बिखर चुकी थी मैं 
इधर उधर कितनी ही बूंदें छिटक गयी 
कितनी घनघोर पीड़ा उठती थी 
कितना भयावह दृश्य था 
हर बूँद सिमट कर एक आकार ले रही थी 
जो जीवन को विस्तार दे रही थी 
एक जनम दूसरा जनम तीसरा  जाने 
कितने जनम 
इस तरह मृत्यु के लोक में हुआ 
मेरा स्वागतम 
निरर्थक है या है सार्थक ये 
कहना है मुश्किल
उस के द्वारा रची गयी हूँ परमात्मा
है इसका हल 
उस दैवीय शक्ति को बना मंजिल 
मैं देह में आरूढ़ होती हूँ 
हर जीव में विद्यमान हूँ मैं 
कोई रूप आकार नहीं है मेरा 
ये बेहद रहस्यात्मक है घेरा
बस तुम मुझे महसूस करो 
अथाह शक्ति है मुझमें 
तुम मेरा आवाहन करो 
क्षण भर ना डरो
ना विचलित हो तुम में मैं 
हूँ या मैं में तुम 
इस उधेड़बुन में हो जाओ
गुम
यह गूढ़ रहस्य कभी होगा
उजागर 
मैं जल की एक मत्स्य वो है 
विशाल सागर 



Tuesday 27 August 2013

ये धुंधले आशियाने






ये धुंधले आशियाने कुछ कहते हैं 
हम आज भी बीते हुए कल में रहते हैं 

कुछ बातें अधूरी सी 
वो शामें सिन्दूरी सी 
यादों के शामियाने कुछ कहते हैं 

जिंदगी की लौ तले
बुझ गए जो दिए 
अपनी रौशनी की कहानी कहते हैं 

रहती है कसक दिल में 
कई मर्तवा जो उठे 
वो खामोश अफ़साने कुछ कहते हैं 

ये दूरियां ही सही 
जो मजबूरियां ही रही 
वो बेबसी के मंजर कुछ कहते हैं 

ये जो तनहाइयां न हों 
या फिर परछाइयां न हों
वो गहराते साये कुछ कहते हैं  

Tuesday 13 August 2013

कम होता न ये धुंआ है





देश हमको बता रहा है या हम देश को बता रहे हैं 
जाने किस डगर किस राह हम जा रहे हैं 
बस इतनी सी बात है कम होता ये धुंआ है 
आगे खाई पीछे कुआं है 
संस्कारो की कोई बात नहीं होती 
नैतिकता मुहं ओंधे किये है सोती 
शब्द झूठे लगते हैं सच्चाई के  
बोल कडवे लगते हैं अच्छाई के 
नेकी का नामोनिशान नजर नहीं आता 
पाप का गागर भर कर छलक जाता 
भ्रष्ट लोगों को देख भ्रष्टाचार को भी है शर्म आती 
सारा देश ऐसे लिप्त है जैसे दल दल में हाथी
बलात्कार के किस्से जो हेड लाइन बन कर जो छाते 
देखकर आदमी क्या अखबार भी दंग रह जाते 
खुनी खेल को अंजाम ऐसे दिया जाता है 
जैसे रोजमर्रा का कोई काम किया जाता है 
कानून अपना अँधा है इसलिए न्याय नहीं हो पाता 
पन्द्रह सौ के मुचलके पर अपराधी छूट जाता 
मांग किसी की उजड़े या उजड़े किसी का घर 
उसको प्रशासन का खौफ है पुलिस का है डर 
पुलिस ऐसी जिसका रौब सिर्फ गरीब झौपडपट्टी 
या रिक्शावालों पर चलता है 
बड़े लोगों नेताओं आला अफसरों के एक इशारे पर 
सिंहासन उसका भी हिलता है 
दहेज़ पर बात आये तो ये किस्सा बहुत पुराना है 
सब सोचते हैं कल की आई नयी बहु को कब जलाना है 
घर भर के ताने सुन आंसुओं  की नदी बहती है 
अस्पताल में छटपटाते हुए अंतिम बिदाई लेती है 
नेता हमारे अपने हाथ नहीं आते एक एक कर घोटालों में फसते जाते 
किसी पर हत्या का केस दर्ज है 
किसी पर मुकद्दमा चल रहा बलात्कार का 
सोचने की बात ये है किसने इन्हें बोट दिया 
किसने अंग बनने दिया सरकार का 
ये आरोप इतने संगीन इतने गहरे है 
हैरान होकर देखते गूंगे बहरे हैं 
सौंधी मिटटी की खुशबू कीचड़ में बदल रही है 
समाज की सड़ी गली गन्दगी हवा में घुल रही है 
सरकार हमारी गहरी नींद में है  सोती 
अपनी कुर्सी छीन जाने का रोना रोती
लूटपाट का ,मक्कारी का जालसाजी का 
चल रहा जंगल राज है 
अंगारों पर देश है बैठा जल रहे हैं सब
फैल रही आग ही आग है 
कोई दिन ऐसा भी आये हम फक्र करें किसी बात पर 
फक्र करने की वो बात भी होगी 
वर्तमान के इन काले पन्नों में
भविष्य का कोई ऐसा पन्ना भी होगा 
जिस पर वो सुनहरी तारीख भी होगी  

              "जय हिन्द" 


Friday 26 July 2013

पगडंडी







घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी 

पैरों तले दबती उस घास का फिर से उग आना
देवदार की पत्तियों से हवा का टकराना 
वो सायं सायं की आवाज आती थी 

महकते जंगली फूलों की वो खुशबू 
चहकती कोयल की वो कू-कू 
जैसे कोई साज बजाती थी 

पानी के झरनों की कडकती ठंडाई 
गीले पत्थरों पर जमीं वो काई
जीवन का ठहराव  दिखाती थी 

ठंडी धुप की हलकी गरमाहट
हिलती पत्तियों की धीमी सुगबुगाहट 
कोई राज सुनाती थी 

दूर होती डालियों का पास आकर लिपटना 
शोर  करते झिगुर का होले से सिमटना 
जैसे कोई सितार बजती थी  

यहाँ वहां मंडराना रंग बिरंगी तितलियों का 
शाम ढलते लौट आना उड़ते पंछियों का 
घर की याद दिलाती थी 

उठने लगी कहीं दूर धुंध हलकी हलकी 
बरसाने लगी गीली बारिश छलकी छलकी
मिटटी की भीनी खुशबू आती थी 

डाल बदन पर कम्बल हम लपेट चले 
बिखरी हवाओं  में यादें समेट चले 
अब सिर्फ याद सताती थी 

घने पेड़ों के बीच बनी पगडंडी उस गावं जाती थी 

मैं देख रही थी...

                                              मैं देख रही थी   गहरी घाटियां सुन्दर झरने   फल फूल ताला...