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मैं देख रही थी...
मैं देख रही थी गहरी घाटियां सुन्दर झरने फल फूल ताला...
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म र्यादा के वृत्त में खड़ा कर औरत सदियों से जिंदगी को जबरन ढोती आज की सीता है तुमसे पूछ रही क्यों ...
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दिन जलता है और रात आहें भरती है मालूम भी हो कि जिंदगी किस वक्त जीनी है थोड़ा थोड़ा ही सही आंगन का दरख़्...
भावपूर्ण रचना ..
ReplyDeleteमुझे बहुत पसंद हैं रचना .. सुन्दर हैं
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ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी...
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 28/10/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
जीवन सरल नहीं काँटों की राह से कमतर नहीं ..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर